रामचरितमानस- जानिये भाग-7 में क्या क्या हुआ

श्री रामचन्द्राय नम:

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥

 

राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥

कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥

 

गोस्वामी जी हम सनातन धर्म अवलंबियों से नम्र निवेदन करते हुए कहते हैं कि मेरी इस राम काव्य को सज्जन लोग अपने जी में श्री रामजी की भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ॥

 

आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥

भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥

 

नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं॥

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥

 

इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर सत्य-सत्य कहता हूँ॥

 

दोहा :

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।

सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥

 

मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥

 

चौपाई :

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥

 

इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, मंगल का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं॥

 

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥

बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥

 

जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती॥

 

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥

 

इसके विपरीत, अधम कवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अलंकृत जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुणग्राही होते हैं॥

 

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥

सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥

 

यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री रामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?

 

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥

 

धुआँ भी अगरबत्ती के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़वेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा का वर्णन किया गया है इसलिए यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।

 

छंद:

मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥

 

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।

 

दोहाः

प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।

दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥

 

श्री रामजी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के संग से काठ भी चंदन बनकर वंदनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ का विचार करता है?॥

 

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।

गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥

 

काली गाय होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और गुणकारी ही होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीतारामजी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥

 

चौपाई :

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥

नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥

 

मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभायमान होते हैं॥

 

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥

भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥

 

इसी तरह, विद्वानों के अनुसार सुकवि की कविता भी उत्पन्न कहीं और होती है और शोभा कहीं और पाती है। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी चली आती हैं॥

 

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥

कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥

 

सरस्वतीजी की थकावट रामचरित रूपी सरोवर में अवगाहन करने से ही दूर होती है दूसरे उपायों से कभी दूर नहीं हो सकती। कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं॥

 

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥

हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥

 

संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥

 

शेष अगले प्रसंग में ——

 

राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥

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